तीखी कलम से

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

शनिवार, 8 नवंबर 2014

"क्या पता फिर ये चिलमन खुले ना खुले"

प्रेम    के    आचमन   की   मुहूरत  रचो,
क्या पता फिर ये चिलमन खुले ना खुले ।
इन हवाओं  में  मन  का  भरम  तोड़ दो ,
क्या पता फिर ये उपवन खिले ना खिले ।।

आज  तुम  प्रीति  की  पांखुरी  सी  लगी ।
होंठ  पर  स्वर  सजी  बाँसुरी  सी   लगी ।।
एक   श्रृंगार   की    कुंडली    सी   लगी ।
एक  तृष्णा   की  अग्नि  जली  सी  लगी।।

प्रेम   के   रंग   में  अब   समर्पण   करो  ।
क्या  पता   फिर  ये  तनमन घुले ना घुले।।
प्रेम   के   आचमन   की    मुहूरत    रचो ।
क्या  पता  फिर  चिलमन खुले  ना  खुले ।।

जब  छनकती  सी  पायल  बजी  रात में ।
रंग    बिखरे  महावर  के   जज्बात   के ।।
चाँद    शर्मा     गया   चाँदनी   रात    में ।
भीग   सब  कुछ  गया   तेज  बरसात में ।।

द्वंद  संकोच   को   आग   में   डाल   दो ।
क्या  पता   फिर ये उलझन जले ना जले ।।
प्रेम   के   आचमन     की    मुहूरत   रचो ,2
क्या पता फिर ये  चिलमन खुले ना खुले ।।

जिसमे  वर्षो से  आँखों  के  काजल धुले ।
जन्म  से इस  प्रतीक्षित मिलन  को   चले ।।
बेबसी  नाम  की    इक  उमर   से   मिले ।
इस किनारे  की  बहकी  लहर  से  मिले ।।

मै   ठगा   सा    रहा   देख    कर  आपको  ,
क्या   पता फिर ये  चितवन  छले न  छले।।
प्रेम     के   आचमन    का    मुहूरत   रचो
क्या  पता फिर ये चिलमन खुले ना खुले ।।

मै   समर्पित   प्रणय  गीत   लिखता   रहा ।
वेदना     के स्वरों     को   सजोता  रहा ।।
त्याग  की  हर  परिधि को मिटाता    रहा ।
अश्रु   की  एक    सरिता   बहाता    रहा ।।

मौन  के शोर  को तुम  भी समझा    करो ,
क्या पता फिर ये  क्रन्दन मिले ना मिले।।
प्रेम   के   आचमन    की   मुहूरत    रचो,
क्या पता फिर ये चिलमन खुले ना खुले ।।

याद    आँचल   में  है  मुह  छिपाना   तेरा ।
चिट्ठियों   में   लिखा   हर   तराना   तेरा ।।
लाज  में   यूँ  नजर   का   झुकाना    तेरा।
सांझ   नदिया के पनघट  पे आना  तेरा ।।

मैं  तुम्हें  देख  लूं   तुम   मुझे   देख   लो ।
क्या पता  फिर ये  निर्जन मिले ना  मिले।।
प्रेम  के   आचमन   की    मुहूरत     रचो ।
क्या  पता  फिर ये चिलमन खुले ना खुले ।

                           -नवीन मणि त्रि
पाठी

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